वेद,उपनिषदों का प्राकृत भाषा में भाषांतर 'ज्ञानेश्वरी' के माध्यम सें, निवृत्तिनाथ के आदेश से ज्ञानेश्वर महाराज ने किया I भगवद्गीतापर ‘ज्ञानेश्वरी’ नामक टीका लिखने के बाद विश्वात्मक भगवान के पास प्रसाद दान की माँग याने ‘पसायदान’।
आता विश्वात्मकें देवें । येणे वाग्यज्ञें तोषावें ।
तोषोनिं मज ज्ञावे । पसायदान हें ॥१॥
जें खळांची व्यंकटी सांडो । तया सत्कर्मी रती वाढो ।
भूतां परस्परे पडो । मैत्र जीवाचें ॥२॥
दुरितांचे तिमिर जावो । विश्वस्वधर्म सूर्यें पाहो ।
जो जे वांच्छिल तो तें लाहो । प्राणिजात ॥३॥
वर्षत सकळ मंगळी । ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी ।
अनवरत भूमंडळी । भेटतु भूतां ॥४॥
चलां कल्पतरूंचे आरव । चेतना चिंतामणींचें गाव ।
बोलते जे अर्णव । पीयूषाचे ॥५॥
चंद्र्मे जे अलांछ्न । मार्तंड जे तापहीन ।
ते सर्वांही सदा सज्जन । सोयरे होतु ॥६॥
किंबहुना सर्व सुखी । पूर्ण होऊनि तिन्हीं लोकी ।
भजिजो आदिपुरुखी । अखंडित ॥७॥
आणि ग्रंथोपजीविये । विशेषीं लोकीं इयें ।
दृष्टादृष्ट विजयें । हो आवे जी ॥८॥
येथ म्हणे श्री विश्वेश्वराओ । हा होईल दान पसावो ।
येणें वरें ज्ञानदेवो । सुखिया जाला ॥९॥
केवल ईश्वराभिमुखता नहीं,तो चारों वर्ण को समझकर विश्वकल्याण का जो विचार करता है वह सच्चा धर्म। ऐसे विचार समाज को देनेवाले निवृत्तिनाथ को विश्वात्मक देव संबोधकर उनसे वाग्यज्ञ से संतुष्ट होकर प्रसाद देने की माँग ज्ञानेश्वर महाराज ने की है। ॥१॥
दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का नाश होकर उनमें सत्कर्म की रुचि बढ़े।इससे सभी सृष्टि का एक-दूसरें पर प्यार बढ़े और उनमें गुण दोषोंके सहित स्वीकार करने की वृत्ति निर्माण हो, ऐसी माँग है। ॥२॥
दुनिया से अज्ञान का अंधकार चला जाए और व्यक्ति को अपने स्वधर्म और कर्त्यव्य का ज्ञान हो और उस कर्त्यव्य को पूर्ण करते समय उसकी इच्छा पूर्ण हो, यह माँग की है I ॥३॥
हरेक प्राणिमात्र पर मांगल्य का वर्षाव करनेवाले ‘संत’ हमें इस सृष्टी में मिले ऐसी माँग है I ॥४॥
यह कल्पवृक्ष हमारी इच्छा पूरी करनेवाले तथा चिंतामणीरूप चिंता का नाश करनेवाले संत, जो अमृत का सागर है ऐसे संतों के वाग्यज्ञ से दुनिया का कल्याण हो I ॥५॥
जो चाँद जैसे शीतल,आल्हाददायक तथा आत्मज्ञान से प्रकाशित है वह संतसज्जन सभी के दोस्त बनें I ॥६॥
‘और क्या माँगू ?’ सोचकर उन्होंने कहाँ की तीनो लोक के लोग सुखी हो जो आत्मज्ञान का सुख प्राप्त करके सदा परमात्मा की भक्ति करें I ॥७॥
यह ग्रंथ के अनुसार व्यक्ति इस विशेष लोक में जिकर दृष्ट और अदृष्ट विषयोंपर विजय प्राप्त करें ऐसी माँग है I ॥८॥
यह सुनकर विश्वगुरु निवृत्तिनाथ कहते है, ‘यह माँगे प्रसाद होगी’ और यह वर प्राप्ती के कारण ज्ञानदेव सुखी हो गए I ॥९॥
ईश्वर को समर्पित किये हुए चीज़ पर हमारा अधिकार नहीं रहता,वह प्रसाद होता है I वैसे ही ज्ञानेश्वर महाराज ने ‘ज्ञानेश्वरी’ निवृत्तिनाथ महाराज को समर्पित करके सभी के कल्याण के लिए प्रसाद माँगा है वह याने पसायदान I
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